स्याम बनधाम मग बाम जोवै।
कबहुँ रचि सेज अनुमान जिय जिय करत लता-सकेत-तर कबहुँ सोवै।।
एक छिनु इक घरी, घरी इक जाम सम, जाम बासरहु तै होत भारी।
मनहि मन साध पुरवत अंग भाव करि, धन्य भुज, धनि हृदै मिलै प्यारी।।
कबहिं आवै साँझ, सोचि अति जिय माँझ, नैन खगइहु ह्वै रहे दोऊ।
'सूर' प्रभु भामिनी बदन पूरन चंद रसपरस मनहिं अकुलात वोऊ।।2605।।