सोभा कहत कही नहिं आवै।
अँचवत अति आतुर लोचनपुट, मन न तृप्ति कौं पावै।
सजल मेध घनस्याम सुभग बपु, तड़ित बसन बनमाल।
सिखि सिखंड, बन-धातु बिराजत, सुमन सुगंध प्रवाल।
कछुक कुटिल कमनीय सघन अति, गो-रज, मंडित केस।
कुंडल-किरनि कपोल लोल छबि, नैन कमल-दल-मीन।
प्रति-प्रति अंग अनंग-कोटि-छबि, सुनि सखि परम प्रबीन।
सूरदास जहँ दृष्टि परति है, होति तहीं लवलीन।।478।।