सोइ रसना, जो हरि-गुन गावै।
नैननि को छवि यहै चतुरता, जौ मुकुंद-मकरंदहि ध्यावै।
निर्मल चित तो सोई साँचौ, कृष्नक बिना जिहिं और न भावै।
स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि-कथा सुधा-रस पावै।
कर तेई जे स्यायमहिं सेधैं, चरननि चलि वृंदाबन जावै।
सूरदास जैयै बलि बाकी, जो हरि जू सौं प्रीति बढ़ावै।।7।।