सूरसागर सप्तम स्कन्ध पृ. 248

Prev.png

सूरसागर सप्तम स्कन्ध-248

विनय राग

421.राग बिलावल - श्री नृसिंह अवतार
सँडामर्क रहे पचि हारि। राजनीति कहि बारंबार।
कह्मों प्रहलाद, पढ़त मैं सार। कहा पढ़ावत ओर जँजार।
जब पांडे इत-उत कहुँ गए। बालक सब इकठौरे भए।
कहयौ,‘‘ यह ज्ञान कहाँ तुम पायौ? ‘नारद माता-गर्भ सुनायौ‘।
सबनि कहयौ, देउ हमैं सिखाइ। सबहिनि कै मन ऐसी आइ।
कह्मों सबनि सौ तब समुझाइ। सब तजि, भजौ चरन रधुराइ।
रामहि राम पढौ रे भाई। रामहिं जहँ-तहँ होत सहाई।
इहाँ कोइ काहू कौ नाहि। रिन, संबंध मिलन जग माहि।
काल-अवधि जब पहुँचै आइ। चलत वार कोउ संग न जाइ।
सदा सँधाती श्री जदुराइ। भजियै ताहि सदा लव लाइ।
हर्त्ताा कर्त्ताु आपै सौइ। घट-घट व्याकप रहयौ है जाइ।
तातै द्वितिया और न कोइ। ताके भजै सदा सुख होइ।
दुर्लभ जन्म सुलभ ही पाई। हरि न भजै सो नरकहि जाई।
यह जिय जानि बिषय परिहरौ। रामहि-राम सदा उच्चरौ।
सत सँवम मानुष की आइ। आधी तौ सोवत हीह जाइ।
कछु बालापन ही मैं बीतै। कछु बिरधापन माहि बितीतै।
कछु नृप-सेवा करत बिहाइ। कछु इक विषय-भोग मै जाइ।
ऐसौ हीं जो जनम सिराइ। बिनु हरि-भजन नरक महँ जाइ।
बालपनौ गए ज्वानी आवै। बृद्ध भए मूरख पछितावै।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः