सूरसागर षष्ठ स्कन्ध पृ. 240

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सूरसागर षष्ठ स्कन्ध-240

विनय राग

416.राग बिलावल - श्रीगुरु-महिमा
अब तुम बिस्वरूप गुरु करौ। ता प्रसाद या दुख कौं तरौ।
सुरपति विस्वरूप पै जाइ। दोउ कर जोरि कह्यौ सिर नाइ।
कृपा करौ, मम प्रोहित होहु। कियौ वृहस्पति मो पर कोहू।
कह्यौ, पुरोहित होत न भलौ। विनसि जात तेज-तप सकलौ।
पै तुम बिनती बहु विधि करी। तातैं मैं मन मैं यह घरी।
यह कहि इंद्रहिं जज्ञ करायौ। गयौ राज अपनौ तिन पायौ।
असुरनि विस्वरूप सौं कह्यौ। भली भई, तू सुरगुरु भयौ।
तुव ननसाल माहिं हम आहिं। आहुति हमैं देत क्यौं नाहिं।
तिहिनिमित्ततिनआहुतिदई।सुरपतिबातजानियहलई।
करि कै क्रोध तुरत तिहिं मारयौ। हत्या हित यह मंत्र विचारयौ।
चारि अंस हत्या के किए। चारौं अंस बाँटि पुनि दिए।
एक अंस पृथ्वी कौं दयौ। ऊसर तामैं तातै भयौ।
एक अंस बृच्छनि कौं दोन्हौ। गोंद होइ प्रकास तिन कीन्हों।
एक अंस जल कौं पुनि दयौ। हैकै काई जल कौं छयौ।
एक अंस सब नारिनि पायौ। तिनकौं रजस्वला दरसायौ।
त्वष्टा विस्वरूप को बाप। दुखित भयौ सुनि सुत- संताप।
क्रुद्ध होइ इक जटा उपारी। बृत्रासुर उपज्यौ बल भारी।
सो सुरपति कौं मारन धायौ। सुरपति हू ता सन्मुख आयौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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