193.राग सारंग
जिन जिनही केसव उर गायौ।
तिन तुम पै गोविंद-गुसाई, सबनि अनै-पद पायौ।
सेवा यहै, नाम सर-अवसर जो काहुहि कहि आयौ।
कियौ बिलंब न छिनहुँ कृपानिधि, सोई निकट बुलायौ।
मुख्य अजामिल मित्र हमारौ, सो मैं चलत बुझायौ।
कहाँ कहाँ लौं कहौं कृपन की, तिनहुँ न स्त्रवन सुनायौ।
व्याघ, गीध, गनिका, जिहि कागर, हौं तिहिं चिठि न चढा़यौ।
मरियत लाज पाश पतितनि मैं, सूर सबै बिसरायौ।
194.राग नट नारायन
बिरद मनौ वरियाइन छाँड़े।
तुम सौं कहा कहाँ करूनामय, ऐसे प्रभु तुम ठाढै़।
सुनि सुनि साधु-बचन ऐसौ सठ, हठि औगुननि हिरानौ।
धोयौ चाहत कीच भरौ पट, जल सौं रुचि नहिं मानौ।
जौ मेरी करनी तुम हेरौ, तौ न करौ कछु लेखौ।
सूर पतित तुम उधारन, बिनय दृष्टि अब देखौ।