189.राग कान्हरौ
ऐसी कब करिहौ गोपाल।
मनसा-नाथ, मनोरथ-दाता, हौ प्रभु दीनदयाल।
चरनननि चित्त निरंतर अनुरत, रसना चरित-रसाल।
लोचन सजल, प्रेम-पुलकित तन, गर अंचल, कर माल।
लहिं विधि लखत, झुकाइ रहै जम अपनैं हौं भय भाल।
सूर सुजस-रागी न डरत मन, सुनि जातना कराल।
190.राग धनाश्री
ऐसे प्रभु अनाथ के स्वामी।
दीनदयाल, पेम-परिपूरन, सब-घट-अंतरजामी।
करत बिबस्त्र द्रुपद-तनया कौं, सरन सब्द कहि आयौ।
पूजि अनंत कोटि बसननि हरि, अरि कौ गर्व गँवायौ।
सुत-हित विप्र, कीर-हित गनिका, नाम लेत प्रभु पायौ।
छिनक भजन, संगति-प्रताप तै, गज अरू ग्राह छुड़ायौ।
नर-तन, सिंह-बदन, बपु कीन्हौ, जन लगि भेष बनायौ।
जिन जन दुखी जानि भय तै अति, रिपु हति, सुख उपजायौ।
तुम्हरी कृपा गुपाल गुसाई, किहिं, किहिं स्त्रम न गंवायौ।
सूरजदास अंब, अपराधी, सो काहैं बिसरायौ।