177.राग धनाश्री
तुम बिन भूलोइ भूलौ डोलत।
लालच लागि कोटि देवनि के फिरत कपाटनि खोलत।
जब लागि सरबस दीजै उनकौं, तबहीं लगि यह प्रीति।
फल मांगत फिरि जात मुकर ह्रवै, यह देवनि की रीति।
एकनि कौं जिय-बलि दै पूजि, पूजन नैकु न तूठे।
तब पहिचानि सबनि कौं छाँड़े, नख-सिख लौं सब जूठे।
कंचन मनि तजि काँचहि सैतत, या माया के लीन्हे।
चारि पदारथ हूँ कौ दाता, सु तौ बिसर्जन कीन्हे ?
तुम कृतज्ञ, करूनामय, केसव, अखिल लोक के नायक।
सूरदास हम दृढ करि पकरे, अब ये चरन सहायक।
178.राग गौरी
प्रभु मेरे, मोसौं पतित उधारौ।
कामी, कृपिन कुटिल, अपराधी, अघनि भरयौ बहुभारौ।
तीनौ पन मैं भक्ति न कीन्हीं, काजर हूँ तैं कारौ।
अब आयौ हौं सरन तिहारी, ज्यौं जानौ त्यौं तारौ।
गीध-ब्याध-गज-गनिका उधरी, लै लै नाम तिहारौ।
सूरदास प्रभु कृपावंत ह्वै, लै भक्तनि मैं डारौ।