सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 53

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 53

विनय राग


105.राग सारंग
अविगत-गति जानी न परै।
मन-बच-कर्म अगाध, अगोचर, केहि बिधि बुधि संचरै।
अति प्रचंउ पौरुष बल पाएं, केहरि भूख मरैं।
अनायास बिनु उद्यम कीन्‍हैं, अजगर उदर भरै।
रीतै भरै, भरै पुनि ढारै, चाहै फेरि भरै।
कबहुंक तृन बूड़ै पानी मैं, कबहुंक सिला तरै।
गागर तैं सागर करि डारै, चहुं दिसि नीर भरै।
पाहन-बीच कमल बिकसावै, जल मैं अगिनि जरै।
राजा रंक, रंक तै राजा, लै सिर छत्र धरै।
सूर पतित तरि जाई छिनक मैं, जो प्रभु नैकु ढरै।

106.राग केदारी
अपनी भक्ति देहु भगवान।
कोटि लालच जौ दिखावहु, नाहिनै रुचि आन।
जा दिना तै जनम पायौ, यहै मेरी रीति।
विषय-विष हठि खात, नाही डरत करत अनीति।
जरत ज्‍वाला, गिरत गिरि तैं, स्‍वकर काटत सीस।
देखि सा‍हस सकुच मानत, राखि सकत न ईस।
कामना करि कोटि कबहुं, किए बहु पसु-घात।
सिंह –सावक ज्‍यौं तजैं गृह, इंद्र आदि डरात।
नरक कूपनि जाइ जमपुर परयौ बार अनेक।
थके किंकर-जूथ जम के, टरत टारैं न नेक।
महा लालच, मारिबे की सकुच नाहिं न मोहिं।
किए प्रन हौं परयौ द्वारैं, लाज प्रन की तोहिं।
नाहिं कांचौ कृपा-निधि हौं, करौ कहा रिसाइ।
सूर तबहुं न द्वार छांड़ै, डारिहौ कढिराइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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