सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 56

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 56

विनय राग


113.राग सारंग
तुम विनु सांकर को काकौ।
तुमही देहु बताइ देवमनि, नाम लेउं धौं ताकौ।
गभं परीच्छित रच्‍छा कीनी, हुतौ नहीं बस मां कौ।
मटी पीर परम पुरुषोत्तम, दुख मेटयौ दुहुं-धां कौ।
हा करुनामय कुंजर टेरयौ, रहयौ नही बल, थाकौ।
लागि पुकार तुरत छुटकायौ, काटयौ बंधन ताकौ।
अंवरीष कौं साप देन गयौ, बहुरि पठायौ ताकौं।
उलटी गाढ़ परी दुर्बासैं, दहत सुदरसन जाकौं।
निधरक भए पांडु-सुत डोलत, हुतौ नहीं डर काकौ।
चारो वेद चतुर्भुख ब्रह्मा जस गावत है ताकौं।
जरासिंधु कौ जोर उघारयौ, फारि कियौ द्वै फांकौ।
छोरी बंदि बिदा किए राजा, राजा ह्यै गए रांकौ।
सभा-मांभ द्रौपदि-पति राखी, पति पानिप कुल ताकौ।
बसन-ओट करि कोट विसंभर, परन न दीन्‍हौं भंकौ।
भीर परै भीषन-प्रन राख्‍वौ, अर्जुन कौ रथ हांकौ।
रथ तै उतरि चक्र कर लीन्‍हौ, भक्तबछल-प्रन ताकौ।
नरहरि ह वै हिरनाकुस मारयौ, काम परयौ, हो वांकौ।
गोपीनाथ सूर के प्रभु कै बिरद न लाग्‍यौ टांकौ।

114.राग कान्‍हरौ
तुम्‍हरी कृपा गोपाल गुसाई, हौ अपने अज्ञान न जानत।
उपजत दोष नैन नहिं सूभत, रवि की किरनि बलूक न मानत।
सब सुख-निधि हरिनाम महामनि, सो पाएहुं नाहीं पहिचानत।
परम कुवुद्धि, तुच्‍छ रस-लोभी, कौड़ो लगि मग की रज छानत।
सिव कौ धन, संतनि कौ सरबस, महिमा वेद-पुरान बखानत।
इते सान यह सूर महा सठ, हरि-नग बदलि, विषय-विष आनत।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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