सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 20

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-20

विनय राग


39.राग बिलावल
कहा कमी जाके राम धनी।
मनसा-नाथ मनोरथ-पूरन, सुख-निधान जाकी मौज धनी।
अर्थ, धर्म, अरु काम, मोक्ष, फल, चारि पदारथ देत गनी।,
इंद्र समान हैं जाके सेवक, नर वपुरे की कहा गनी।
कहा कृपिन की माया गनियै, करत फिरत अपनी-अपनी।
खाइ न सकै खरचि नहिं जानै, ज्‍यौं भुजंग-सिर रहत मनी।
आनंद-मगन राम-गुन गावै, दुख-संताप की काटि तनी।
सूर कहत जे भजत राम कौं, तिनसौं हरि सौं सदा बनी।

40.राग बिलावल
हरि के जन की अति ठकुराई।
महाराज, रिषिराज, राजमुनि, देखत रहे लजाई।
निरभय देह, राज-गढ़ ताकौ, लोक मनन-उतसाहु।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ये भए चोर तै साह।
दृढ़ विस्‍वास कियौ सिंहासन, तापर बैठै भूप।
हरि-जस विमल छत्र सिर ऊपर, राजत परम अनूप।
हरि-पद-पंकज पियौ प्रेम-रस, ताही कै रंग रातौ।
मंत्री ज्ञान न औसर पावै, कहत बात सकुचाती।
अर्थ-काम दोउ रहैं दुवारैं, धर्म-मोक्ष सिर नावैं।
बुद्धि-विवेक विचित्र पौरिया, समय न कबहूँ पावै।
अष्‍ट महा-सिधि द्वारैं ठाढ़ी, कर जोरे, डर लीन्‍हे।
छरीदार वैराग विनोदी, भ्क्तिरकि बाहिरै कीन्‍हे।
माया, काल, कछू नहिं ब्‍यापै यह रस-रीति जो जानै।
सूरदास यह सकल समग्री, प्रभु प्रताप पहिचानै।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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