सुनौ किन कनकपुरी के राइ।
हौं बुधि-बल-छल करि पचिहारी, लख्यौं न सीस उचाइ।
डोलै गगन सहित सुरपति अरु पुहुमि पलटि जग परई।
नसै धर्म मन बचन काय करि, सिंधु अचंभौं करई।
अचला चलै चलत पुनि थाकै, चिरंजीवि सो मरई।
श्री रघुनाथ-प्रताप पतिव्रत, सीता-सत नहिं टरई।
ऐसी तिया हरत क्यों आई, ताजौ यह सतिभाउ।
मन-बच-कर्म और नहिं दूजौ, बिन रघुनंदन राउ।
उनकैं क्रोध भस्मो ह्वै जैहौ, करौ न सीता चाउ।
तव तुम काकी सरन उवरिहौ, सो बलि मोहिं बताउ?
‘जौ सीता सत तै बिचलै तौ श्रीपति काहि सँभारै?
मोसे मुग्धा महापापी कौं कौन क्रोध करि तारै?
ये जननी, वै प्रभु रघुनंदन, हौं सेवक प्रतिहार।
सीताराम सूर संगम बिनु कौन उतारै पार?'॥78॥