सुनौ अनुज, इहिं बन इतननि मिलि -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग केदारौ


 
सुनौ अनुज, इहिं बन इतननि मिलि जानकी प्रिया हरी।
कछु इक अंगनि की सहिदानी, मेरी दृष्टि परी।
कटि केहरि कोकिल कल बानी, ससि मुख-प्रभा घरी।
मृग मूसी नैनन की सौभा, जाति न गुप्त करी।
चंपक-वरन, चरन-कर कमलनि, दाड़िम दसन लरी।
गति मराल अरु विंब अघर-छबि, अहि अनूप कवरी।
अति करुना रघुनाथ गुसाई, जुग ज्यौं जाति घरी।
सूरदास प्रभु प्रिया-प्रेम-बस, निज महिमा बिसरी॥63॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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