सिर मटुकी मुख मौन गही।
भ्रमि भ्रमि बिबस भई नव ग्वारिनि, नवल कान्ह कैं रस उमही।।
तन की सुधि आवति जब मनहीं, तबहिं कहति कोउ लेहु दही।
द्वारैं आइ नंद कैं बोलति, कान्ह लेहु किन सरस मही।।
इत उत फिरि आवति याही मग, महरि तहाँ लगि द्वार रही।
और बुलावति ताहि न हेरति बोलति आनि नंद-दरही।।
अंग-अंग जसुमति तिहिं चरची, कहा करति यह ग्वारि वही।
सुनहु सूर यह ग्वारि दिवानी, कब की याही ढंग रही।।1675।।