स्यामहिं गावत काम-बस।
हंसत हंसावत करि परिहास। मन मैं कहत करैं अब रास।।
अंचल गहि चंचल चल्यौ।
ल्यायौ कोमल पुलिन मंझार। नख सिख भूषन अंग सँवार।।
पट भूषन जुवतिनि सजे।
कुच परसत पुजई सब साध। रस सागर मनु मगन अगाध।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
रस मैं बिरस जु अंतरधान। गोपिनि के उपजै अभिमान।।
बिरह-कथा मैं कोन सुख।
द्वादस कोस रास परमान। ताकौ कैसैं होत बखान।।
आस पास जमुना झिली।
तामैं मान सरोवर ताल। कमल बिमल जल परम रसाल।।
सेवहिं खग मृग सुख भरे।
निकट कल्प तरु बंसी बटा। श्री राधा रति कुंजनि अटा।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
नव कुमकुम रज बरषत जहां। उड़त कपूर धूरि तहँ तहाँ।।
और फूल फल को गनै।
तहं घन स्याम रास रस रच्यौ। मरकत मनि कंचन सौं खँच्यौ।।
अद्भुत कौतुक प्रगट कियौ।
मंडल जोरि जुवति जहं बनी। दुहुँ दुहुँ बीच स्याम धन धनी।।
सोभा कहत न आवई।
घूंघट मुकुट बिराजत सीस। सोभित ससि मनु सहस बतीस।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
मनि कुंडल ताटंक बिलोल। बिहंसत लज्जित ललित कपोल।।
अलक तिलक केसरि बनी।
कंठसिरी गज मोतिनि हार। चंचरि चुहि किंकिनि झनकार।।