छंद
तुव दरस की आस पिय ब्रत नेम दृढ़ यह है धरयौ।
कौन सुत को मातु को पति कौन तिय को किनि करयौ।।
कहाँ पठवत जाहिं काकैं, कहौ कहँ मन मानिहैं।
यहाँ बरू हम प्रान त्यागैं आई जहँ सोइ जानिहैं।।
हरि तब हंसि बोले धनि ब्रजनारी।
मैं तुम बहुत कसी दृढ़-ब्रतधारी।।
मुख बहुत कही अंतर तुमहीं रहीं।
जब जहँ देह धरौ तहँ तुम सँगहीं।।
छंद
कहा कसि कोउ तुमहिं देखै, कनक बारह बानि हो।
मेरे तौ तुम प्रान जानहु, और मन नहिं जानि हो।।
तबहिं हिलि मिलि रास कीन्हौ, जुवति बहु मंडलि जुरी।
कनक मरकत खंभ रचि, बिच कान्ह बिच-बिच नागरी।।
अद्भुत रास रच्यौ गिरिधर लाडिले।
श्री बृषभानु-सूता सौं हरि चाड़िले।।
अति आनंद बढ़यौ गोपी हरष भई।
निर्तत रीझे भुज भरि स्याम लई।।
जल थल पवन थक्यौ। खग मृग तरु बिथक्यौ।।
देखत मदन जक्यौ। चरननि सरन तक्यौ।।