ललन हौं या छबि ऊपर वारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग



ललन हौं या छबि ऊपर वारी।
बाल गोपाल लागौ इन नैननि, रोग बलाइ तुम्हारी।
लट लटकनि, मोहन मसि-‍बिंदुका-तिलक भाल सुखकारी।
मनौ कमल-दल सावक पेखत, उड़त मधुप छबि न्यारी।
लोचन ललित, कपोलनि काजर, छबि उपजाति अधिकारी।
सुख मैं सुख औरै रुचि बाढ़ति, हँसत देत किलकारी।
अलप दसन, कलबल करि बोलनि, बुधि नहिं परत बिचारी।
बिकसति ज्योति अधर-बिच मानौ बिधु मैं बिज्जु उज्यारी।
सुंदरता कौ पार न पावति, रूप देखि महतारी।
सूर सिधु की बूंद भई मिलि मति-गति-दृष्टि हमारी।।91।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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