रूप मोहिनी धरि ब्रज आई।
अद्भूत साजि सिंगार मनोहर, असुर कंस दै पान पठाई।
कुच बिष वोोशटि लगाइ कपट करि, बाल-घातिनी परम सुहाई।
बैठो हुतो जसोदा मंदिर, दुलरावती सुत कुँवर कन्हाई।
प्रगट भई तहं आइ पूतना, प्रेरित काल अवधि नियराई।
आवत पीढ़ा बैठन दोनौ, कुसल बुझि अति निकट बुलाई।
पौढ़ाए हरि सुभग पालना, नंद-घरनि कछु काज सिधाई।
बालक लियौ उछंग दुष्टमति, हरषित अस्तान-पान कराई।
बदन निहारि प्रान हरि लीनौ, परी राच्छसी जोजन ताई।
सूरज दै जननी-गति ताकौं, कृपा करी निज धाम पठाई।।50।।