रास-रस मुरली ही तैं जान्यौ।
स्याम-अधर पर बैठि नाद कियौ, मारग चंद्र हिरान्यौ।।
धरनि जीव जल-थल के मोहे, नम-मंडल सुर थाके।
तृन-द्रुम-सलिल-पवन गति भूले, स्रवन शब्द परयौ जाकै।।
बच्यौ नहीं पाताल-रसातल, कितिक उदै लौं भान।
नारद-सारद-सिव यह भाषत, कछु तनु रहौ न स्यान।।
यह अपार रस रास उपायौ, सुन्यौ न देख्यौ नैन।
नारायन धुनि सुनि ललचाने, स्याम अधर रस बेनु।।
कहत रमा सौं सुनि-सुनि प्यारी बिहरत हैं बन स्याम।
सूर कहाँ हमकौं वैसो सुख, जो बिलसतिं ब्रज-बाम।।1069।।