यह मति नंद तोहिं क्यौ छाजी ।
हरि रस बिकल भयौ नहिं तिहि छन, कपट कठोर कछू नहिं लाजी ।।
राम कृष्न तजि गोकुल आए, छतिया छोभ रही क्यौ साजी ।
कहा अकाज भयौ दसरथ को, लै जु गयौ अपनी जग वाजी ।।
बातै ई पै रहतिं कहन कौ, सब जग जात काल की खाजी ।
‘सूर’ जसोदा कहति सो धिक मति, जो गिरिधरन बिमुख ह्वै भाजी ।। 3133 ।।