यह तब कहन लगे दिविराई। इंद्रहिं पूजे कौन बड़ाई।।
कोटि इंद्र हम छिन मैं मारैं। छिनहीं मैं पुनि कोटि सँवारैं।।
जाके पूजैं फल तुम पावहु। ता देवहिं तुम भोग लगावहु।।
तुम आगैं यह भोजन लैहै। मुँह माँगे फल तुमकौ दैहै।।
ऐसौ देव प्रगट गोबरधन। जाके पूजैं बाढ़ै गोधन।।
समुझि परी कैसी यह बानी। ग्वाल कही यह अकथ कहानी।।
सूर स्याम यह सपनौ पायौ। भोजन कौने देवहिं खायौ।।898।।