यहै कहत बसुदेव त्रिया जनि रोवहु हो -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


यहै कहत बसुदेव त्रिया जनि रोवहु हो।
भाग्य बिवस सुख दुःख सकल जग जोबहु हो।।
जल दीन्हे कर आनि कहत मुख धोबहु नारी।
कहियत है गोपाल हरनदुख गर्वप्रहारी।।
कबहुँ प्रगट वै होइँगे, कृष्न तुम्हारे तात।
आजु काल्हि हरि आइहै, यह सपने की बात।।
अब जनि होहि अधीर, कस की आयु तुलानी।
देखत जाइ बिलाइ, झार तिनका करि जानी।।
ऐसौ सुपनौ मोहि भयौ, त्रिया सत्य करि मानि।
त्रिभुवनपति तेरौ सुवन है, तोहिं मिलैगौ आनि।।
इहि अतर हरि कह्यौ, मातु पितु कहाँ हमारे।
तहँ लै गए अकूर स्याम बलराम पधारे।।
वज्र सिला द्वारै दियौ, दरसन तै गइ छूटि।
सहज कपाट उघरि गए, ताला कुंजी टूटि।।
जौ देखै वसुदेव, कुँवर दोउ काके आए।
दरस दियौ तिहिं प्रेम, प्रथम जो दरस दिखाए।।
धाइ मिले पितु मातु कौ यह कहि मैं निजु तात।
मधुरै दोउ रोवन लगे जिन सुनि कंस डरात।।

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