मोहन मोहिनी रस भरे।
भौंह मोरनि, नैन फेरनि, तहाँ तैं नहिं टरे।।
अंग निरखि अनंग लज्जित, सकै नहिं ठहराइ।
एक ही कह चलै, सत-सत कोटि रहत लजाइ।।
इते पर हस्तकनि गति-छबि, नृत्य-भेद अपार।
उड़त अंचल, प्रगटि कुच दोउ, कनकघट-रससार।।
दरकि कंचुकि, तरकि माला, रही धरनी जाइ।
सूर-प्रभु करी निरखि करुना, तुरत लई उचाइ।।1145।।