(माई) मोहन की मुरली मैं मोहिनी बसत है।
जब तैं सुनी स्रवन, रह्यौ न परै भवन, देत है मनहुं प्रान अब निकसत है।।
कहा करौं मेरी आली, बांसुरी की धुनि साली, माता-पिता पति बंधु अतिहीं त्रसत है।
महन अगिनी अरु विरह की ज्वाला जरी जैसे जन-हीन मीन तट दरसत है।।
सूर स्याम मिलन कौं आतुर ब्रज की बाल, एक-एक पल जुग-जुग ज्यौं खसत है।।1367।।