मोकौं निंदि पर्बतहिं बंदत। चारा कपट पंछि ज्यौं फंदत।।
मरन काल ऐसी बुधि होई। कछू करत कछुवै वह जोई।।
खेलत खात रहे ब्रज भीतर। नान्हे लोग तनक धन ईतर।।
समै समै बरषौं प्रतिपालौं। इनकी बुद्धि इनहिं अब घालौं।।
मेरैं मारत कौन राखिहै। अहिरनि कैं मन यहै काषिहै।।
जो मन जाकैं सोइ फल पावै। नीम लगाइ आम को खावै।।
विष कैं वृच्छ विषहि फल फलिहै। तामैं दाख कहौ क्यों मिलि है।।
अगिनि बरत देखत कर नावै। कहा करै तिहि अगिनि जरावै।।
सूरदास यह सब कोउ जानै। जो जाकौ तो ताकौ मानै।।924।।