मेरे साँवरे जब मुरली अधर धरो। सुनि सिध-समाधि टरी।
सुनि थके देव बिमान। सुर-बधु चित्र-समान।
ग्रह-नखत तजत न रास। बाहन बँधे धुनि-पास।
चल थाके, अचल टरे। सुनि आनँद-उमँग भरे।
चर-अचर-गति बिपरीति। सुनि बेनु-कल्पित गीति।
झरना न झरत पषान। गंधर्ब मोहे गान।
सुनि खग मृग मौन धरे। फल-तृन की सुधि बिसरे।
सुनि धेनु धुनि थकि रहतिं। तृन दंतहू नहिं गहतिं।
बछरा न पीवैं छीर। पंछी न मन मैं धीर।
बेलीद्रमु चपल भए। सुनि पल्लव प्रगटि नए।
सुनि बिटप चंचल पात। अति निकट कौं अकुलात।
आकुलित पुलकित गात। अनुराग नैन चुचात।
सुनि चंचल पौन थक्यौ। सरिता जल चलि न सक्यौ।
सुनि धुनि चलीं ब्रजनारि। सुत-देह-गेह बिसारि।
अति थकित भयौ समीर। उलट्यौ जु जमुना-नीर।
मन मोह्यौ मदन गुपाल। तन स्याम, नैन बिसाल।
नवनील-तन-घनस्याम। नव पीत पट अभिराम।
नव मुकुट नव बन-दाम। लावन्य कोटिक काम।
मनमोहन रूप धरयौ। तब गरब अनंग हरयौ।
श्री मदनमोहन लाल। सँग नागरी ब्रज-बाल।
नव कुंज जमुना-कूल। जन सूर देखत फूल।।623।।