मुरली हरि तैं छूटति है।
वाही कैं बस भए निरंतर, वह अधरनि रस लूटति है।।
तुम तैं निठुर भए वह बोलत, तिन तैं मन उघटावति है।
आरज-पथ, कुल कानि मिटावति, सबकौं निलज करावति है।।
निदरे रहति, डराति नहिं काहुँ, मुंह पाऐं वह फूलति है।
अब वह हरि तैं होति न न्यारी, तू काहे कौं भूलति है।।
रोम-रोम नख-सिख रम पागी, अनुरागिनि हरि प्यारी है।
सूर स्याम वाकैं रस लुबधे, जानी सौति हमारी है।।1239।।