महर-महरि-मन गई जनाइ।
वन भीतर, खन आँगन ठाढ़े, खन बाहिर देखत है जाइ।
इहिं अंतर सब सखा पुकारत, रोवत आए ब्रज कौं वाइ।
आतुर गए नंद-घरही कौं, महर-महरि सौं बात सुनाइ।
चकित भए दोउ बूझन लागे, कहौ बात हम कौं समुझाइ।
सूर स्याम खेलतहिं कदम चढ़ि, कूदि परे कालीदह जाइ।।543।।