मन हरि लीन्हौ, कुँवर, कन्हाई।
तबहीं तै मैं भई दिवानी, कहा करौ री माई।।
कुटिल-अलक-भीतर अरुझानौ, अब निरुवारि न जाई।
नैन कटाच्छ चारु अवलोकनि, मो तन गए बसाई।।
निलज भई कुलकानि गँवाई, कहा ठगौरी लाई।
बारंबार कहति मै तोकौ, तेरे हियै न आई।।
अपनी सी बुधि मेरी जानति, मैं उतनी कहँ पाई।
'सुर' स्याम ऐसी गति कीन्ही, देहदसा बिसराई।।1899।।