मनौ गिरिवर तै आवति गंगा।
राजति अति रमनीक राधिका, इहि बिधि, अधिक अनूपम अंगा।।
गौर-गात-दुति बिमल बारिबिधि, कटितट त्रिवली तरल तरंगा।
रोम राजि मनु जमुन मिली अध, भँवर परत मानौ भ्रुव भंगा।।
भुज जुग पुलिन पास मिलि बैठे, चार चवकबै उरज उतंगा।
मुख लोचन, पद, पानि पकरुह, गुरु गति, मनहुँ मराल बिहंगा।।
मनिगन भूषन रुचिर तीर बर, मध्य धार मातिनि-मय मंगा।
'सूरदास' मनु चली सुरसरी, श्रीगुपाल सागर सुख गंगा।।2454।।