मधुबन सब कृतज्ञ घरमीले।
अति उदार परहित डोलत है, बोलत बचन सुसीले।।
प्रथम आइ गोकुल सुफलसुत, लै मधुरिपुहि सिधारे।
उहाँ कंस ह्याँ हम दीननि कौ, दूनौ काज सँवारे।।
हरि कौ सिखे सिखावन हमकौं, अब ऊधौ पग धारे।
ह्याँ दासी रति की कीरति कै, इहाँ जोग विस्तारे।।
अब तिहि बिरह समुद्र सबै हम, बूड़ी चहु तन ही।
लीला सगुन नाव ही सुनु अलि, तिहिं अवलंब रही।।
अब निरगुनहिं गहैं जुवतीजन, पारहिं कहा गई।
‘सूर’ अक्रूर छपद के मन मैं, नाहिंन त्रास दई।।3594।।