मधुकर मो मन अधिक कठोर।
बिगसि न गयौ कुंभ काँचे लौ, बिछुरत नंदकिसोर।।
हम तै भली जलचरी बपुरी, अपनो नेह निबाह्यौ।
जलतै बिछुरि तुरत तन त्याग्यौ, पुनि जल ही कौ चाह्यौ।।
जौ हम प्रीति रीति नहि जानति, तौ व्रजनाथ तजी।
हमरे प्रेम नेम की ऊधौ, सब रस रीति लजौ।।
अचरज एक सुनौ हो ऊधौ, जल बिनु मीन रह्यौ।
'सूरदास' प्रभु अवधि आस लगि, मन विस्वास गह्यौ।।3729।।