मधुकर छाँड़ि अटपटी बातै।
फिरि फिरि बार बार सोइ सिखवत, हम दुख पावति जातै।।
हम दिन देतिं असीस प्रात उठि, बार खसौ मत न्हातै।
तुम निसि दिन उर अंतर सोचत, ब्रज जुवतिनि की घातैं।।
पुनि पुनि तुमहिं कहत कत आवै, कछुक सकुच है नातै।
'सूरदास' जे रँगी स्याम रँग, फिरि न चढै रँग यातै।।3547।।