मोरन के चंदवा माथैं बने 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


भुज बिसालचंदन सौं चरचित, कर गहे मुख मृदु बंस। मानहुं सुधा-सरोवर कैं ढिग, क्रीड़त जुग कलहंस।। कंचन बरम पीत उपरैना, सोभित सांवल अंग। मानहुं आवत आगैं पाछैं निसि बासर इक संग।। नाभि गंभीर सुधा-सरसी जनु, त्रिबली सिढ़ी बनाई। ब्रज-बधु-नैन मृगी आतुर ह्वै, अति प्यासी ढिग आई।। कटि प्रदेस सुंदर सुदेस सखि, ता पर किंकिनि राजै। अति नितंब, जंघनि प्रति सोभा, देखत गजपति लाजै।। पीत पिडुरिया स्याम लसी री, चरनांबुज नख जाल। मंद-मंद गति वै आवत हैं मत्त दुरद की चाल।। बृंदाबन मैं बिहरत दोऊ मम प्रभु स्यामा स्याम। सूरदास-उर बसहु निरंतर, मनमोहन अभिराम।।1204।। </poem>

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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