भुजा पकरि ठाढे हरि कीन्हे।
बाहँ मरोरि जाहुगे कैसै, मैं तुम नीकै चीन्हे।।
माखन चोरी करत रहे तुम, अब भए मन के चोर।
सुनत रही मन चोरत है हरि, प्रगट लियौ मन मोर।।
ऐसे ढीठ भए तुम डोलत, निदरे ब्रज की नारि।
'सूर' स्याम मोहूँ निदरौगै, देहुँ प्रेम की गारि।।1932।।