ब्रज भयौ महर कैं पूत जब यह बात सुनी।
सुनि आनंदे सब लोग, गोकुल गनक-गुनी।
अति पूरन पूरे पुन्य, रोपी सुथिर थुनी।
ग्रह-लगन-नषत-पल सोधि, कीन्ही बेद-धुनी।
सुनि धाइँ सब ब्रजनारि, सहज सिंगार किये।
तन पहिरे नूतन चीर, काजर नैन दिये।
कसि कंचुकि, तिलक लिलार, सोभित हार हिये।
कर-कंचन, कंचन-थार, मंगल-साज लिये।
सुभ स्रवननि तरल तरौन, बेनी सिथिल गुही।
सिर बरषत सुमन सुदेस, मानौ मेघ फुही।
मुख मंडित रोरी रंग, सेंदुर माँग छुही!
उर अंचल उड़त न जानि, सारी सुरँग सुही।