बिहरत नारि हंसत नंद-नंदन। निर्मल देह छूटि तन-चंदन।।
अति सोभा त्रिभुवन-जन बंदन। पावत नहि गावत स्रुति छंदन।।
कंचन पेड़ नारि-अंग सोभा। वे उनकौं वे उनकौं लोभा।।
कबहुँ अंक भरि चलत अगाधहिं। अरस-परस मेटत मन-साधहिं।।
कोउ भाजै कोउ पाछैं धावैं। जुवतिनि सौं कहि ताहि मंगावैं।।
ताकौं गहि अथाह जल डारैं। मुख-ब्याकुलता-रुप निहारैं।।
कंठ लगाइ लेत पुनि ताहीं। देत अलिंगन रीझत जाहीं।।
सूर स्याम ब्रज-जुवतिनि भोगी। जाकौं ध्यावत सिव मुनि जोगी।।1164।।