पीतांबर की सोभा सखि री मोपै कही न जाई।
सागर-सुत-पति-आयुध मानौ, बन-रिपु-रिपु मैं देत दिखाई।।
जा रिपु पवन, तासु-सुत-स्वामी-आभा, कुंडल कोटि दिषाई।
छाया पतितनु बदन विराजत बंधुक अधरनि रहे लजाई।।
नाकी-नायक-वाहन की गति, राजत मुरली सुधुनि बजाई।
'सूरदास' प्रभु हर-सुत-वाहन, ता पख लै रहे सीस चढ़ाई।।1868।।