नैन परे रस-स्याम-सुधा मैं।
सिव सनकादि, ब्रह्म, नारद मुनि ये लुब्धे है जामैं।।
ऐसो रस बिलसत नाना बिधि, खात, खवावत, डारत।
सुनहु सखी वैसी निधि तजि कै, क्यौ वै तुमहि निहारत।।
जिनि वह सुधा पान सुख कीन्हौ, ते कैसे दुख देखत।
त्यौ ये नैन भए गरबीले, अब काहैं हम लेखत।।
काहे कौ अपसोस मरति हौ नैन तुम्हारे नाही।
जाइ मिले 'सूरज' के प्रभु कौ, इत उत कहूँ न जाही।।2235।।