नैननि कौ मत सुनहु सयानी।
निसि दिन तपत सिरात न कबहूँ, जद्यपि उमँगि चलत पल पानी।।
हौ उपचार अमित उर आनति, खल भई लोकलाज कुलकानी।
कछु न सुहाइ, दहत दरसनदव, वारिज-बदन-मद-मुसुकानी।।
रूप-लकुट-अभिमान निडर ह्वै, अब उपहास न सुनत लजानी।
बुधि विवेक बल बचन चातुरी, मनहुँ उलटि उन माँझ समानी।।
आरजपथ गुरुज्ञान गुप्त करि, बिकल भई तनु दसा हिरानी।
जाचत 'सूर' स्यामअंजन को, वह किसोर छवि जीव हितानी।।2365।।