नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहि।
इहिं मुख मधुर बचन हँसि कै धौं, जननि कहै कब मोहिं।
यह लालसा अधिक मेरे जिय, जो जगदीस कराहिं।
मो देखत कान्हर इहिं आँगन, पग द्वै धरनि धराहिं।
खेलहिं हलधर संग रंग-रुचि, नैन निरखि सुख पाऊँ।
छिन-छिन छुधित जानि पय कारन, हंसि-हंसि निकट बुलाऊँ।
जाकौ सिब-बिरंचि-सनकादिक, मुनिजन ध्यान न पाव।
सूरदास जसुमति ता सुत-हित, मन अभिलाष बढा़व।।75।।