नहीं हम निरगुन सों पहिचानि।
मन मनसा रस रूप सिंधु मे, रही अपुनपौ सानि।।
जदपि आनि उपदेसत ऊधौ, पूरन ज्ञान बखानि।
चित चुभि रही मदन मोहन की, चितवनि मृदु मुसकानि।।
जुरयौ सनेह नंदनंदन सौ, तजि परिमिति कुलकानि।
छूटत नहीं सहज ‘सूरज’ प्रभु, दुख सुख लाभ कि हानि।।3806।।