नंद गोप हरषित ह्वै, गए लैन आगै।
आवत बलराम स्याम, सुनत दौरि चली बाम, मुकुट झलक पीताबर मन मन अनुरागै।।
निहचै आए गुपाल आनदित भई बाल, मिट्यौ बिरह कौ जँजाल, जोवत तिहिं काला।
गदगद तन पुलक भयौ, बिरहा कौ सूल गयौ, कृस्न दरस आतुर अति प्रेम कै विहाला।।
ज्यौ ज्यौ रथ निकट भयौ, मुकुट पीत वसन नयौ, मन मैं कछु सोच भयौ स्याम किधौं कोऊ।
‘सूरज’ प्रभु आवत है, हलधर कौ नहीं लखति, झखति कहति होते तौ सग वीर दोऊ।।3464।।