नंदराइ सुत लाड़िले 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री
अघासुर-बध



धन्य कान्ह, धनि नंद, धन्य जसुमति महतारी।
धन्य लियौ अवतार, कोखि धनि, जहँ दैतारी।
गिरि-समान तन अगम अति, पन्नग की अनुहारि।
हम देखत पल एक मैं, मारयौ दनुज प्रचारि।
हरि हँसि बोले बैन, संग जौ तुम नहि होते?
तुम सब कियौ सहाइ, भयौ तब कारज मोते।
हम हुँ तुम हुँ मिलि बैठि बन, भोजन करै अघाइ।
बंसीबट भोजन बहुत, जसुमति दियौ पठाइ।
ग्वाल परम सुख पाइ, कोटि मुख करत प्रसंसा।
कहा बहुत जो भए, सपूतौ एकै बंसा।
चढि़ विमान सुर देखहीं, गगन रहे भरि छाइ।
जय-जय धुनि नभ करत हैं, हरषि पुहुप बरसाइ।
ब्रह्म सुनी यह बात, अमर-घर-घरनि कहानी।
गोकुल लीन्हौ जन्म, कौन मैं यह नहिं जानी।
देखौं इनकी खोज लै, सोच परयौ मन माहिं
सूर स्याम ग्वालनि लए, चले बंसीवट-छाहिं।।431।।

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