धन्य कान्ह धनि राधा गोरी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग विलावल


धन्य कान्ह धनि राधा गोरी।
धनि यह भाग, सुहाग धन्य यह, नवल-नवला नव-जोरी।।
धनि यह मिलनि, धन्य यह बैठनि, धनि अनुराग नही रुचि थोरी।
धनि यह अरस परस छबि लूटनि, महाचतुर, मुख-भोरे-भोरी।।
प्यारी अंग अंग अबलोकति, पिय अवलोकत लगति ठगोरी।
'सूरदास' प्रभु रीझि थकित भए, नागरि पर डारत तृन तोरी।।2134।।

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