उत्तम सफल एकादसि आई 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
वरुण से नंद को छुड़ाना


धनि ब्रज धनि गोकुल की नारी। पूरन ब्रह्म जहाँ बपु-धारी।।
सेस-सहस-मुख बरनि न जाई। सहज रुप को करै बड़ाई।।
देखि नंद तब करत विचारा। यह कोउ आहि बड़ौ अवतारा।।
नंद मनहिं अति हर्ष बढ़ायौ। कृपा-सिंधु मेरै गृह आयौ।।
बरुनहि दीन्ही लोक बड़ाई। वृंदाबन-रज करौ सदाई।।
बरुन थापि नंदहि लै आए। महर गोप सब देखन धाए।।
नंदहि बूभत हैं सब बाता। हम अति दुखित भए सब गाता।।
एकादसी काल्हि मैं किन्हौ। निसि-जागरन-नेम यह लीन्हौ।।
तीनि पहर निसि जागि गँवाई। तब लीन्हौ मैं महरि बुलाई।।
एक दंड द्वादसी सुनाई। ता कारन मैं करी चँड़ाई।।
गयौ जमुन-भीतर कटि लौं भरि। वरुन-दूत लै गए मोहिं धरि।।
तहँ तै जाइ कृष्ण मोहिं ल्यायौ। यह कोउ बड़ौ पुरुष है आयौ।।
इनकी महिमा कोउ न जानै। बरुन कोटि मुख इन्हैं बखानै।।
रानिनि सहित परयौ चरननि तर। बंदनवार बंधे महलनि घर।।
मेरो कहयौ सत्य कै मानौ। इनकौं नर देही जनि जानौ।।
जसुमति सुनि चक्रित यह बानी। कहत कहा यह अकथ कहानी।।
ब्रज-नर-नारि कहत यह गाथा। इनतै हम सब भए सनाथा।।
मया मोह करि सबै भुलाए। नंदहि बरुन-लोक तैं ल्याए।।
नंद इका‍दसि बरनि सुनाई। कहत-सुनत सब कैं मनभाई।।
जो या पद कौं सुनै सुनावै। एकादसि व्रत कौ फल पावै।।
यह प्रताप नंदहि दिखराई। सूरदास-प्रभु गोकुल-राई।।984।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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