देखि री देखि हरि बिलखात।
अजिर लोटत राखि जसुमति, धूरि धूसर गात।
मूँदि मुख छिन सुसुकि रोवत, छिनक मौन रहात।
कमल मधि अलि उड़त, सकुचत, पच्छ दल-आघात।
चपल दृग, पल भरे अँसुवा कछुक ढरि-ढरि जात।
अलप जल पर सीप द्वै लखि, मीन मन अकुलात।
लकुट कैं डर ताकि तोहि तब पीत पट लपटात।
सूर प्रभु पर वारियै ज्यौं, भलेहि माखन खात।।360।।