देखत हरि के रूपहि नैना, हारै हार न मानत।
भए भटकि बलहीन छीन तन, तउ अपनी जय जानत।।
दुरत न पट की ओट, प्रगट ह्वै, बीच पलक नहिं आनत।
छुटि गए कुटिल कटाच्छ अलक मनु, टूटि गए गुन तानत।।
भाल तिलक भुव चाप आपु लै, सोइ संधान संधानत।
मन क्रम बचन समेत 'सूर' प्रभु, नहिं अपबल पहिचानत।।2398।।