तुमहिं बिमुख रघुनाथ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग केदारौ
श्रीराम-भरत संवाद


 
तुमहिं बिमुख रघुनाथ, कौन बिधि जीवन कहा बनै।
चरन-सरोज बिना अवलोके, को सुख धरनि गनै।
हठ करि रहे, चरन नहिं छाँड़े, नाथ, तजौ निठुराई।
परम दुखी कौसल्या जननी, चलौ सदन रघुराई।
चौहद वरष तात की आज्ञा, मोपै मेटि न जाई।
सूर स्वामि की पाँवरि सिर धरि, भात चले बिलखाई॥53॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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