तब ऊधौ हरि निकट बुलायौ।
लिखि पाती दोउ हाथ दई तिहिं, औ मुख वचन सुनायौ।।
ब्रजवासी जावत नारी नर, जल थल द्रुम बन पात।
जो जिहिं बिधि तासौ तैसैही, मिलि कहियौ कुसलात।।
जो सुख स्याम तुमहिं तै पावत, सो त्रिभुवन कहुँ नाहिं।
‘सूरज’ प्रभु दइ सौह आपुनी, समुझत हौ मन माहिं।।3448।।